Sunday, December 12, 2021

नवगीत : निर्धनता यूँ रोती है : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
निर्धनता यूँ रोती है
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी 16/14

चूल्हे चिमटे क्रंदन करते
धैर्य कड़ाही खोती है
भूख तड़पती हर घर आँगन
निर्धनता यूँ रोती है।।

दबे टीकड़े कुछ भुभळ में
स्तब्ध खड़ा हारा चीखे
दो जून कहीं खोई रोटी 
भाग्य कहीं खोए दीखे 
दलिया की डलिया भी रीती
पीर उसे भी होती है।।

चाक कहें विस्मित चाकी से
बिन गेहूँ के क्या पीसें
और तवा कह अन्तस् जलता
पल-पल बढ़ती हिय चीसें।
रिक्त पड़ा आटे का पीपा 
ऐसे रोटी पोती है।।

घर आँगन के नीम पुराने 
काट रही नित नव आरी
मर्यादित दृढ़ भीतें तोड़ी
मार सभ्यता पर मारी
नग्न विवश ये कंचन काया
काग चुने पर मोती है।।

#संजयकौशिक'विज्ञात'

8 comments:

  1. बहुत ही हृदयस्पर्शी मार्मिक नवगीत 👌
    बिम्ब, कथन, सब एक से बढ़कर एक ...नमन आपकी लेखनी को गुरुदेव 🙏

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  2. चूल्हे चिमटे क्रंदन करते बेहद मार्मिक , बहुत सुंदर बिम्ब 👌👌🌹🌹🌺

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  3. बेहद मर्मस्पर्शी नवगीत.....हर बिंब अपने आप में अनूठा है👏👏👏👏👏👏👏

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  4. मुझे भी गीत सीखने हैं l

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  5. बहुत ही मार्मिक नवगीत 👌🙏

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  6. बेहद शानदार आपकी रचना गुरुदेव सुन्दर नवगीत 🙏🙏🙏🙏

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  7. मार्मिक हृदयस्पर्शी, अनुपम बिंबों को समेटे शानदार नवगीत आदरणीय🙏🙏🙏

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  8. हृदय स्पर्शी सृजन।
    भावों का सहज विस्तार।
    मानवीयकरण के सुंदर उदाहरण।
    अद्भुत।

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