Thursday, July 8, 2021

नवगीत : पपीहा : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
पपीहा 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 14/12

पी कहाँ है 
ढूँढता है 
ये पपीहा 
प्रीत में 
तीव्र स्वर से
वो पुकारे 
प्रियतमा को 
गीत में।।

प्रेम उसका 
गूँजता सा
सौरमण्डल 
नाद बन
व्योमिनी सी 
हूक उठती 
मास पावन 
भाद बन
भाव अर्पित 
प्रण उसी पर 
हार हो या 
जीत में।।

त्रस्त जीवन
भोगता है
शाप जैसा
धार के
स्वप्न टूटे 
से सँजोता 
नित स्वयं को 
मार के
स्वाति के जल 
का पिपासित 
जी रहा उस 
रीत में।।

जब विरह की 
आग भड़के 
फिर स्वरों से 
चीखता 
बादलों से
पीर बरसे 
दृग बरसना 
सीखता
सृष्टि अनुपम
सी बसाई 
एक अपने 
मीत में।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

12 comments:

  1. अति सुंदर सशक्त लेखनी

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  2. वाह अद्भुत सृजन आदरणीय 👌👌👌👌👌

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  3. शानदार नवगीत । प्रणाम आपको गुरूदेव जी ।

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  4. बहुत ही आकर्षक रचना 👌👌👌

    पी कहाँ है ???

    प्रेम के प्रतीक माने जाने वाले पपीहा पर बहुत ही खूबसूरत लिखा गया है। प्रतीकात्मक शैली का उत्कृष्ठ उदाहरण ....नमन आपकी लेखनी को गुरुदेव 🙏

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  5. उत्कृष्ट सृजन आदरणीय, 👏👏👏🙏

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  6. बहुत ही शानदार नवगीत गुरवर नमन है आपको

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  7. बहुत सुंदर सृजन आदरणीय गुरु जी
    नमन 🙏💐

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  8. आदरणीय, आपकी रचना पढ़ना सौभाग्य की बात है और मुझे यह अवसर मिला उसके लिये हृदतल से आपका आभार...उत्कृष्ट, अद्भुत सृजन..शत शत नमन🙇🙇💐💐🙏🙏

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  9. अतुलनीय भाव
    नतमस्तक इस लेखनी पर

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