Friday, July 30, 2021

नवगीत : व्यंजना नवगीत ओढ़े : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत
व्यंजना नवगीत ओढ़े 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~14/14


बाँसुरी ने राग छेड़े 
फिर दहकते गीत मेरे
ये अधर वो पुष्प चूमें
जब चहकते गीत मेरे।।

घाटियाँ गुंजित गगन की
नव्यता के बोल सुनकर
ग्राम स्वर उस लेखनी का
छंद मधुरिम काव्य बुनकर
तंतुवाही ताल ठोकी 
फिर खनकते गीत मेरे।।

उर्मियाँ भी शब्द टोहे
बिम्ब उत्तम जो निखारे
मेघ की गर्जन मल्हारी 
भाव जड़ती और प्यारे 
चंद्र से उज्ज्वल निखर के
यूँ दमकते गीत मेरे।।

व्यंजना नवगीत ओढ़े
टीस की अनुपालना में
शक्ति शाब्दिक झूलती है 
लक्षणा की टालना में
फिर अभिधा भी सिसकती 
जब खटकते गीत मेरे।।

सभ्यता संस्कृति समेटी
दी प्रतीकों ने झलक ये
नेत्र मनभावन कहे जब
बंद करती हैं पलक ये
भाव अन्तस् में लहरते
फिर झटकते गीत मेरे।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, July 29, 2021

*गिरिजा छंद : शिल्प विधान : संजय कौशिक 'विज्ञात'




गिरिजा छंद 
शिल्प विधान
संजय कौशिक 'विज्ञात'


शिल्प विधान ~ १९ वर्ण प्रति चरण
चार चरण दो दो सम तुकांत
२,९,१९ वें वर्ण पर यति हो
मगण सगण मगण सगण सगण मगण लघु
२२,२ ११२ २२२, ११२  ११२ २२२  १



साथी, यूँ चलना ही होगा, अब तो बढ़ना होगा आज।
देखो, ये नदिया भी बोले, चल सिद्ध सधें सारे काज।।
जीते, जो अँधियारे को है, शिव भी रखते देखो भाल।
तारे, यूँ चमके प्यारे से, शशि हैं चलते प्यारी चाल।।


©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Wednesday, July 21, 2021

नवगीत : मीत का आभास : संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत 
मीत का आभास 
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~ 14/14

बूंद तन पे जब चिपकती
मीत का आभास देती
वो किरण सी खिलखिलाई
एक बाती चास देती।।

वेग से गिरती हुई सी 
बूंद अपनी बात कहती
आग प्रीतम के हृदय की
स्पर्श से यूँ और दहती
आँख बहती मौन साधे
पी मिलन की आस देती।।

बूंद के ये पुष्प अनुपम 
मार्ग में सावन बिखेरे
मग्न जल से पथ हुए यूँ
बिम्ब मोती के उकेरे 
गीत टेरे दामिनी ने 
रागिनी विश्वास देती।।

कामिनी का ये विरह भी
हर्ष का आनंद पाए
जब हवा ठिठुरन उड़ेले
उड़ दुपट्टा फेर जाए
कर रही प्रिय सी शरारत
नव्यता सोत्प्रास देती।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Monday, July 12, 2021

नवगीत : हिय व्यथित चित्कारता : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
हिय व्यथित चित्कारता
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ स्थाई / पूरक पंक्ति ~ 12
अन्तरा 16/16

हिय व्यथित चित्कारता।।

आहत क्रंदन शोर मचाता
चीत्कारों को कौन सुनेगा
भावों की ये नदिया बहती
वर्ण पिघलते दोष लगेगा
और सावन मारता।।

हृदय विलापी राग सुनाकर
कंठ हुए अवरुद्ध पुकारें 
नृत्य करें विकलांग इशारे
गायन के सब स्वर झनकारें
कष्ट भी दुत्कारता।।

जकड़न तोख हथकड़ी झड़के
सम्मोहन की टूटी बेड़ी
पाश बिलखता मोह संकुचित
और विदारक चीखें छेड़ी
व्यंजना को धारता।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Saturday, July 10, 2021

नवगीत : पात्र हैं पावन : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
पात्र हैं पावन 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~~ 11/14

ये चंद्र चातक से
कथा के पात्र हैं पावन
हर्षित करे हिय को
नचाये मोर ज्यूँ सावन।।

उर प्रीत मेघों की
लिए पृथ्वी सदा घूमे
इस सौरमण्डल के
भले तारे यहाँ झूमे
चूमे दिखे अम्बर
रहा वो दूर से छावन।।

सुर में पवन गाये
करे फिर वंदना इनकी
दिखती प्रतीकों में 
सुनी चर्चा यहाँ जिनकी
धुनकी अमर गाथा
छिड़े जब रागमय गावन।।

सरगम बनी वर्षा
मल्हारी राग पर नर्तन
फिर तालियाँ बजती
लगे यूँ हो रहा कीर्तन 
बर्तन करें स्वागत 
यही है ताल का आवन।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Thursday, July 8, 2021

नवगीत : लेखनी भी प्रश्न करती : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
लेखनी भी प्रश्न करती 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 14/14 


आज कल क्यो मौन हो तुम
लेखनी भी प्रश्न करती
रिक्त सारी पंक्तियाँ हैं 
जो विरह में डूब मरती।।

हिय विदारक व्यंजना से
ये हृदय कम्पित हुआ है
शब्द अटके कुछ हलख में
वेदना का घर छुआ है
खेल में काई भरे फिर 
आँख दिखती और झरती।।

भाग्य फूटा एक दर्पण 
जो हजारों बिम्ब फूटे
व्याधियाँ हँसती खड़ी सी 
हर्ष को नित और लूटे
कष्ट को लेती बुला फिर 
इक हवा पुरजोर भरती।।

छंद सिसकें गीत रोते
पृष्ठ पर उतरें नहीं ये
लेखनी से क्रुद्ध हैं या 
रूठ के बैठे कहीं ये
रस उलझ के भाव बिखरे
घाव लिखती और डरती।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

नवगीत : पपीहा : संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत 
पपीहा 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 14/12

पी कहाँ है 
ढूँढता है 
ये पपीहा 
प्रीत में 
तीव्र स्वर से
वो पुकारे 
प्रियतमा को 
गीत में।।

प्रेम उसका 
गूँजता सा
सौरमण्डल 
नाद बन
व्योमिनी सी 
हूक उठती 
मास पावन 
भाद बन
भाव अर्पित 
प्रण उसी पर 
हार हो या 
जीत में।।

त्रस्त जीवन
भोगता है
शाप जैसा
धार के
स्वप्न टूटे 
से सँजोता 
नित स्वयं को 
मार के
स्वाति के जल 
का पिपासित 
जी रहा उस 
रीत में।।

जब विरह की 
आग भड़के 
फिर स्वरों से 
चीखता 
बादलों से
पीर बरसे 
दृग बरसना 
सीखता
सृष्टि अनुपम
सी बसाई 
एक अपने 
मीत में।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'

Friday, July 2, 2021

नवगीत : आत्मघात : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत
आत्मघात
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~ 16/14

धरणी अपना पुत्र निहारे 
एक लटकता गल फंदा
देख कृषक के दृश्य व्यथित से
मेघ बरसता दृग मंदा।।

आत्मघात का दृश्य भले ये 
ऋण वध करता किसे दिखे
सेठ बही सब बोल कहेगी
साक्ष्य सभी के पाठ लिखे
ब्याज चढ़े नित मसि की सीढ़ी
सेठ चमकता ज्यूँ चंदा।।

शुष्क उपज चीत्कार कहे तब
अन्तस् का क्रंदन सारा
कौन कहे ये आप मरा है
इसको विधना ने मारा
टेढ़ी ये जीवन की लकड़ी
काल चला जाता रंदा।।

कूप कहे विद्युत की करनी
फूँक चली जो स्रोत सभी
इसका नाम नही हो सकता
मृत्यु रहे सच देख तभी
बैल खड़े वे पग को चाटे
करके निज मुख को गंदा।।

©संजय कौशिक 'विज्ञात'