Tuesday, April 13, 2021

नवगीत : प्रीत अवगुंठन 3 : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
प्रीत अवगुंठन 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी~14/12

प्रीत अवगुंठन हटाकर 
झाँकती हिय आज फिर
सुर्ख लाली से अधर पर
कुछ चमकती लाज फिर।।

मेंहदी से कर सुसज्जित
पग महावर में पड़े
भाग्य अपना वे सराहें
यौवना से मिल खड़े
केश गजरा पुष्प का वो
इक हँसी उसपर जड़े
खिलखिला सौंदर्य महके
और सब उपमा घड़े
प्राण बिन पाषाण मूरत
सह रही नित गाज फिर।।

और सकुचाहट समेटे
कपकपाहट छोड़कर
श्रेष्ठ आलिंगन करे वो
कर सुराही मोड़कर 
स्पर्श का आनंद महके
श्वास भटकी जोड़कर 
अप्सरा लज्जित खड़ी सी 
कुछ अचंभित होड़कर
कल्पना से और सुंदर 
रति भरे नित ब्याज फिर।।

भाव गङ्गा पावनी से
चंचला चलती लहर
गाँव अपना भूलता सा 
शीतला सी ये नहर
पीपलों सी छाँव मीठी
नग्न देखे ये शहर
और चुनरी इक ह्रदय पर 
कौन आती अब पहर
स्मृति पटल से कुछ पिछोडे
छालनी बन छाज फिर।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

6 comments:

  1. बेहद खूबसूरत नवगीत आदरणीय 👌👌👏👏👏👏

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  2. बहुत ही शानदार शानदार🙏🙏🙏👌👌👌

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  3. बेहद खूबसूरत रचना 👌👌👌
    प्रीत अवगुंठन एक और दो जितनी ही शानदार 👌
    हर रस पर आपकी कलम दौड़ती है 💐💐💐💐
    नमन आपकी लेखनी को 🙏🙏🙏

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  4. बेहद आकर्षक नवगीत पूजनीय
    आपकी लेखनी को नमन 🙏🙏🙏

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  5. बहुत सुन्दर👌👌💐💐

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  6. बहुत सुन्दर नवगीत।
    चैत्र नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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