Sunday, March 21, 2021

नवगीत : महायोद्धा : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
महायोद्धा 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~14 / 14

अड़ गये हिय अश्व जैसे
और वो रथ हाँकता है
टूट कर दोनों थके से 
धैर्य सीमा लाँघता है।।

जो स्वयं से युद्ध लड़ते
वो महायोद्धा बने हैं
वन भटकते पांडवों से
कष्ट ने तोड़े घने हैं 
धूप तपती भाग्य रेखा 
सह रहे पीपल तने हैं 
अश्व आत्मिक शक्ति बनता
चेतना हिय दो जने हैं
जब शिथिल दोनों पड़े फिर
कौन दुख को बाँटता है।।

लेखनी बन व्यास तड़पे
मसि महाभारत खड़े हैं
पार्थ लरजा भाव बिलखे
सारथी वो बन अड़े हैं
उठ नही पाये कभी वो
मोह के पर्दे पड़े हैं
वो नदी कब तैर पाये
लोभ के डूबे घड़े हैं
सुन सके वे नाद कैसी
ओम अनहद गाँजता है।।

नीच के सिर ताज सजते
डूबते परमार्थ कैसे
शक्ति का करके विसर्जन
जीत जाते पार्थ कैसे
सत्य फूँके रोग मिटते
बच गए फिर स्वार्थ कैसे
भाव सोते ही रहें तो
मूर्ति हो चरितार्थ कैसे
ये विचारों का भँवर ही
नाव को फिर टाँगता है।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

3 comments:

  1. सादर नमन गुरुदेव 🙏
    बहुत ही सुंदर नवगीत 👌
    शानदार कथन और बिम्ब 💐💐💐

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  2. अद्भुत भाव व्यंजना आदरणीय सरजी।

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