Friday, June 26, 2020

तपस्विनी सी धरा : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
तपस्विनी सी धरा 
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी ~~16/14


तपस्विनी सी धरा तपे फिर 
ध्यान मगन है नभ मण्डल
मध्य भाल के केंद्र बिंदु में 
सुलग रहे हैं ज्यों बण्डल।।

शुष्क अंजली अर्ध्य चढ़ा कर
नित्य यहाँ पूजन करती
रक्त वाहिनी बनी नदी ये
रिक्त पड़ी बहती दिखती
और धूल की उठती खुशबू
मानो महका हो संदल।।

जेष्ठ मास भी बना तपस्वी
तपता रहता निशिवासर
मिले श्वास को सिद्धि सुधा कुछ
सोच रहा यह संवत्सर
मुरझाई सी खिले कहीं पर
आज प्रेम की वो डंठल।।

पद्मासन का मूर्ति रूप से
प्राणवायु प्राणायामी
पूरक कुम्भक रेचक करती
नित्य निरन्तर आयामी
मेघ भृकुटि से तने खड़े फिर
सूर्य चन्द्र से हैं कुण्डल।।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

10 comments:

  1. मुरझाई सी खिले कहीं पर
    आज प्रेम की वो डंठल।।
    वाह वाह बहुत खूब आप को और आप की लेखनी को नमन गुरु देव जी

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  2. सूर्य चंद्र से हैं कुण्डल......बहुत शानदार सृजन👏👏👏👏👏👌👌👌👌👌

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  3. अनुपम!!!
    वाह!!
    अभिनव व्यंजना द्वारा गर्मी की भीषणता, और मेघों की झलक में वर्षा का स्वागत ।
    सुंदर अति सुंदर।

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  4. मेघ भृकुटि से तने खड़े फिर
    सूर्य चन्द्र से हैं कुण्डल।। वाह बेहतरीन 👌👌👏👏👏👏

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  5. आदरणीय गुरुदेव सादर वंदन 🙏🙏🙏
    बहुत ही शानदार नवगीत जिसमें धरती और अम्बर के माध्यम से लाजवाब बिम्ब की निर्मिति की गई है। बिम्बों में छुपी गूढ़ता इस रचना को अनुपम बना रही है 💐💐💐💐💐

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  6. अनुपम अद्वितीय नवगीत

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  7. धूल की उठती खुशबू
    महका हो संदल

    शानदार नवगीत हेतु बधाई आपको ।
    प्रतीक में संदेशा गढ़ने की अनुपम कला है आपमें ।
    शानदार ।

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  8. प्रतीक के माध्यम से रचित अनुपम सृजन👏👏👏👏

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