Sunday, March 29, 2020

नवगीत : सिंदूरी साँझ : संजय कौशिक 'विज्ञात'


नवगीत 
सिंदूरी साँझ
संजय कौशिक 'विज्ञात' 

मापनी ~~18/17


सिंदूरी  साँझ के अस्तांचल में, 
धुंधलापन क्यो गहर गया है।
चला नहीं लहरी क्षण क्यों आगे,
देख किसको फिर ठहर गया है।

1
अकुलाहट कुछ हिचकाहट  देखी,
इस क्षितिज के आँचल में रुककर। 
समय उड़ाने भर कर उड़ता था, 
मोर पंखों को खोले  झुककर।
आज अचानक वो लय क्यों टूटी,
शांत चितवन भी लहर गया था

2
कश्ती जब तट को खोज रही थी,
उर्मियाँ सागर की बोल उठी।
अवगुंठन मदमाई सी संध्या,
देख यौवन उसका खोल उठी।
जब अन्तस् में ज्वाला सी दहकी, 
टूट क्रंदन का फिर कहर गया ....

3
मांग सुसज्जित सी देख सितारे, 
और ज्यादा से जब चमक चले।
शशि की कांति अदृश्य भले दिखती, 
आस तारों की थी दमक चले। 
घर के आंगन तक हँसता आया, 
चंद्र नभ मण्डल में फहर गया।

संजय कौशिक 'विज्ञात'

8 comments:

  1. शानदार शब्दचयन और लाजवाब अभिव्यक्ति 👌👌👌 बिम्ब और भाव सब बहुत सुंदर 👌👌👌 आपकी कलम यूँ ही नित्य नव सृजन कर हम सब का मार्गदर्शन करती रहे 💐💐💐💐 नमन 🙏🙏🙏

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  2. वाह वाह बहुत खूब बहुत सुन्दर गीत क्या कहने कैसे तरिफ करूं बहुत सुन्दर

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  3. बहुत शानदार सृजन आदरणीय सर👏👏👏👏👏👏👏

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  4. घर के आंगन तक हँसता आया,
    चंद्र नभ मण्डल में फहर गया।
    वाह आदरणीय ..अति सुन्दर सृजन
    साँझ का मनोहारी चित्रण 🙏🙏🙏

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  5. बहुत सुंदर भाव पूर्ण बिम्ब प्रधान गीत
    हार्दिक बधाई

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  6. व ा ह । बहुत सुन्दर नवगीत । सिन्दूरी साँझ अपने आप में ही लाजवाब ।

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