Saturday, February 22, 2020

नवगीत अधूरी कल्पना संजय कौशिक 'विज्ञात'



नवगीत
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मापनी
14/14

कल्पना ये कल्पना है,
आपके बिन सब अधूरी।
बिन स्वरों कब गूंजती है,
बांसुरी की तान पूरी।

1
श्वास बिन कब फूटते स्वर,
बांसुरी सम धड़कनों से।
देख शीशा टूटता ज्यूँ,
ठेस थोड़ी अडकनों से।
वो चमक मिलती नहीं है,
देख हीरा जरकनों से।
आज तक सूना लगे घर,
चूड़ियों की खनकनों से।

व्यर्थ ये दुनिया छलावा,
ले समय के साथ दूरी।
कल्पना ये कल्पना है,
आपके बिन सब अधूरी।

2
पान की खशबू रमी जब,
फिर हवा को स्वर मिले थे।
वो गुलाबी से अधर फिर,
मौन तोड़े कुछ हिले थे।
फिर तरंगी आवरण से,
और ज्यादा से खिले थे।
संतरे की लालिमा से,
कुछ अधिक लगते छिले थे।

साँझ कुछ महकी हवा में,
रूप बदला बन कपूरी।
कल्पना ये कल्पना है,
आपके बिन सब अधूरी।

संजय कौशिक 'विज्ञात'
vigyatkikavita

2 comments:

  1. बहुत ही भावपूर्ण सुंदर नवगीत ...जिसे पढ़ने के बाद गुनगुनाने का मन करे 👌👌👌👌 शानदार सृजन की बधाई आदरणीय 💐💐💐💐 सादर नमन 🙏🙏🙏

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  2. रूप बदला बन कपूरी👏👏👏👏👏👏बहुत कुछ बोलती पंक्तियाँ 👌👌👌👌👌लाजवाब नवगीत.....

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