Sunday, February 16, 2020

नवगीत कल्पना के गाँव संजय कौशिक 'विज्ञात'




नवगीत
संजय कौशिक 'विज्ञात'

मुखड़ा/पूरक पंक्ति ~~ 14/14
अन्तरा ~~14/14 

कल्पना के गाँव में भी, 
कब बना है घर हमारा॥ 
और जीवन नाव भटकी, 
ढूंढती अब तक किनारा॥ 

चांदनी की बात सुनकर, 
चाँद भी कुछ मौन ठहरा। 
जानता है वो तमस को, 
कष्ट कारक खूब गहरा। 
वो खड़े तारे यहाँ पर, 
दे रहे है सख्त पहरा।
क्यों भटकती फिर रही है, 
चाँदनी को ओट लहरा।

क्यों मुड़ नभ ताकती है,
कौन देता है सहारा। 
कल्पना के गाँव में भी, 
कब बना है घर हमारा॥

2
उर्मि सागर की मचल कर, 
धड़कनों सी जो धड़कती।
सीपियाँ मोती  उगलती,
पूछती सी कुछ फड़कती।
शंख जितने गूंजते हैं, 
और ज्यादा ही भड़कती।
सह रहे हैं व्याधियाँ सब, 
टूटती कितनी कड़कती

यूँ समय की उर्मियाँ कुछ, 
कर लहर को फिर इशारा।
कल्पना के गाँव में भी, 
कब बना है घर हमारा।

3
भाव नदिया से बहें जब, 
वो मचल के उल्लास भरते। 
बोलती वो व्यंग धारें, 
उर जगा आक्रोश करते।
वो नदी तट रेत पसरा,
हर्ष देता पाँव धरते।
सूर्य नभ से फिर चमक कर, 
कष्ट तम के नित्य हरते।

तप रहे हैं आज कण-कण, 
उन कणों ने भी पुकारा। 
कल्पना के गाँव में भी, 
कब बना है घर हमारा। 


संजय कौशिक 'विज्ञात'

19 comments:

  1. बहुत ही शानदार नवगीत 👌👌👌
    आपकी अनोखी लेखन शैली बहुत ही आकर्षक और प्रेरणादायक है ....नमन आपकी लेखनी को 🙏🙏🙏 लाजवाब भाव 👏👏👏

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  2. कल्पना के गांव में भी बहुत सुन्दर आपकी लेखनी को शत् शत् नमन बहुत सुन्दर

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  3. बहुत सुंदर गीत ।‌ भाव नदिया से बसें जब... बहुत खूब। हार्दिक बधाई।

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  4. वाह वाह उम्दा सृजन, आपको व आपकी कलम को सादर नमन।

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  5. क्यों भटकती फिर रही है, चाँदनी क्या सोच सहरा....
    प्रकृति का सुंदर मानवीयकरण👌👌👌👌👌अद्भुत भावों से सजा खूबसूरत नवगीत👏👏👏👏👏💐💐💐💐

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  6. बहुत सुंदर रचना ।आखरी की चार पंक्तियाँ अद्वैत। वाह

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  7. बहुत ही शानदार नवगीत सूर्य नभ का यूँ चमकता
    रेत में कुछ रोष भरते गजब का भाव

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  8. वाह अद्भुत लेखन, बहुत सुंदर नवगीत 👌👌

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  9. गाँव के प्रति सुन्दर कल्पना सराहनीय है।बधाई हो।

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  10. अति सुन्दर सर जी

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  11. अत्यंत सुंदर सृजन

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  12. वाह बहुत खुबसूरत

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  13. ३ की दूसरी पंक्ति से 'के'को हटाने से मात्रा दोष नहीं रहेगा।
    विचार कर के देखें।

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