Wednesday, January 29, 2020

अलंकार प्रयोग ◆◆◆ संजय कौशिक 'विज्ञात'


अलंकार प्रयोग ◆◆◆ संजय कौशिक 'विज्ञात'

विरोधाभास अलंकार/ विरोधीलंकार 

आइये जानते हैं विरोधाभास अलंकार/ विरोधीलंकार की पहचान 
यह अलंकार हिन्दी कविता/छंद में प्रयुक्त होने वाला एक अलंकार का भेद है जिसमें एक ही वाक्य के अंदर आपस में कटाक्ष करते हुए दो या दो से अधिक भावों का मिश्रण किया गया हो वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है ।

उदाहरण के तौर पर : *'मधुर जहर, मीठा झगड़ा,सौम्य अंगार'*

दोहे के इस चरण में ज़हर को मधुर  बताया गया है जबकि सर्वत्र विदित है कि ज़हर मधुर कदापि नहीं समझा जाता और न ही मधुर होता है। अतः इस प्रकार इस दोहे में  विरोधाभास अलंकार की आवृति स्पष्ट प्रदर्शित है।

मधुर जहर करता असर, मीठा झगड़ा मान। 
सौम्य आग अंगार वे, जलती रिपु पहचान॥
संजय कौशिक 'विज्ञात'  

व्याख्या:- 
जहर के खाने से मृत्यु निश्चित है पर यह मीठा असर कारक बताया गया है यह पहली बात हुई। दूसरी बात में झगड़ा भी मीठा लगता है। तीसरी बात यह है कि अंगारे आग ये सब शीतल से प्रतीत होते हैं ये सब विरोधाभास वाली उक्ति यदि दुश्मन के साथ घट रही है तो उस समय माना जाता है कि दुश्मन तो जितना परेशान रहेगा उतना पल प्रतिपल खून बढ़ता है। और यदि स्वयं के साथ घटती है तो आदमी कराह उठाता है। अतः विरोधाभास तर्क संगत है। 
 यहाँ विरोधाभास अलंकार ने दोहे के तर्क को चार चांद लगा दिए हैं *'मधुर जहर, मीठा झगड़ा,सौम्य अंगार'*





■ *वृत्यानुप्रासी अलंकार*

जहाँ चरण/पंक्ति में एक व्यंजन की आवर्ती अनेक बार होती है वहाँ वृत्यनुप्रास अलंकार होता है


चिन्ता चतुराई चरे, चरे चिता कचकन्द 
चतुर चमक को चाखता, चटक चढ़े चल चंद 
चटक चढ़े चल चंद, चकोरी चंचल चितवन
मंच प्रपंच अचूक, चित्र संचित कर बचपन 
कौशिक सोच विचार, उच्च कह चपल विचिन्ता 
चर्चित विचलित चोंच, कीचमय सचमुच चिन्ता 

संजय कौशिक 'विज्ञात'




*सिंहावलोकन* 

पद्य विधा में सृजन की गई रचना जिसके एक चरण के अंत में प्रयुक्त शब्द  अग्रिम चरण के प्रारम्भ में पुनः प्रयोग किया जाये  जैसे—किसी रचना के अंतिम चरण में ‘पारिजात’ शब्द आ गया है तो अग्रिम पंक्ति का प्रथम शब्द ‘पारिजात’ ही होने से यह चमत्कृत प्रयोग सिंहावलोकन कहलाता है। दूसरे शब्दों में साहित्य में 'सिंहावलोकन' की संज्ञा 'यमक अलंकार' के एक प्रकार अथवा भेद को ही दी गई है। प्रायः देखने में आता है कि सिंहावलोकन चमत्कार छंद के प्रथम चरण के अंत में आये शब्द को अग्रिम चरण के प्रारम्भ में प्रयोग किया जाता है। जो सिंह की तरह मुड़ कर अवलोकन करता हुआ सा प्रतीत होता है यही सिंहावलोकन कहलाता है

अपने प्रिय जनों को समर्पित---
*अपने* सब मिलकर रहें, पूर्ण करें सब *काम*।
*काम* विकारों से परे, *धाम* वही सुख *धाम*
*धाम* वही सुख *धाम*, पुष्प सा होता *विकसित*
*विकसित* हो परिवार, नहीं वे होते *व्यवसित*
*व्यवसित* कवि के भाव, लगे हों मानो *तपने*
*तपने* लगते गैर, शांति पाते हैं *अपने*

*संजय कौशिक 'विज्ञात'*

*शब्दार्थ:-*
काम - कार्य, काम विकार
धाम - घर , तीर्थ
विकसित - खिला हुआ , विकास
व्यवसित संस्कृत शब्द विशेषण  से अर्थ क्रमानुसार  - धैर्यवान , तत्पर बनते हैं संज्ञा से क्रमानुसार - छल, निर्धारण बनते हैं
तपने - तपस्या, तप्त/ गर्म  होना

*श्लेष अलंकार:-*
एक प्रयोग और देखें (सफल/निष्फल के निर्णायक आप) 

*दृश्य और चिंतनीय विषय* 
अलंकार कैसे लिखा गया, साथियों ने अवगत कराया श्लेष, मानवीकरण और विप्सा। 
एक विवाह के कुछ दृश्य देखे तो उन्हें इस प्रकार जोड़ा, सर्वप्रथम भिक्षुक के पात्र काँसा को देखा जो भरा हुआ था, काँसा दान देखा, काँसा को बहन के साथ जाते देखा तब प्रश्न उठा आज ये सब ऐसे कैसे ? अब सृजन शील मन की प्रारम्भ होती ही सृजनात्मक यात्रा .... जो व्यथा से शुरू है, भिक्षुक का पात्र वो अपनी व्यथा में रो रहा है, छोटे भाई पर सभी समान भाव नहीं रखते इसलिए वो रो रहा है, धातु से बनी मूरत रो रही है ये सामान्य दृश्य हैं जो प्रतिदिन देखे जा सकते हैं। इस प्रकार ये तीनों बिना भाव के पिछड़ जाते हैं, अपने दर्द को किसको कहें और कौन सुनता है आज कल कष्ट भोगी के प्रति हेयता की दृष्टि  अचानक लौकिकता प्राप्त करती हैं। भिखारी का पात्र भर जाता है कनिष्ठ को जिम्मेदारी का अनुभव करा कर बड़ा बनाया जाता है बहन के साथ भेजकर और काँसा का बर्तन खरीदा जाता है दान के उद्देश्य से ...... अब निर्णय आप करें रचना वो सब कह पाने में सक्षम हुई या नहीं जो कवि मन ने देखा और कहना चाहता है 


*श्लेष अलंकार:-*
*एक शब्द में एक से अधिक अर्थ जुड़े हों (जहाँ कोई शब्द एक ही बार प्रयुक्त हो किंतु प्रसंग भेद में उसके अर्थ अलग-अलग निकलते हों वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है।*
*1 काँसा* 
*2 भाव*

*मानवीयकरण अलंकार:-* 
*अमानव ( प्रकृति, पशु-पक्षी व निर्जीव पदार्थ में मानवीय गुणों का आरोपण करना मानवीयकरण अलंकार कहलाता है* जैसे:- 
*काँसा मूरत रो रही*

*विप्सा अलंकार;-* 
*मनोभावों को प्रकट करने के लिए शब्द को दुहराना (विप्सा-दुहराना)* जैसे 
*छि: छि: -- तिरस्कृत , घृणा योग्य*

'कौशिक' काँसा हिय व्यथा, रोया काँसा जातु।
काँसा मूरत रो रही, भिक्षु-पात्र, लघु, धातु ।
भिक्षु-पात्र, लघु, धातु, भाव बिन पीछे रहते।
कौन समझता दर्द, सुनाकर किसको कहते॥
छि: छि: उठता प्रश्न, बने फिर कैसे लौकिक। 
भिक्षु-दान, लघु, धातु, विवाहों में क्यों 'कौशिक' ॥ 
*संजय कौशिक 'विज्ञात'*

शब्द- अर्थ 
*'जातु' अवयव* (कदाचित्) कभी 
काँसा - कनिष्ठ, भिक्षुक पात्र, धातु 
भाव- भावना/ मूल्य/ भाव (गूढ़ विचार) 
भिक्षु - भिखारी 
कनिष्ठ- लघु

चरण 11, लघु के बाद यति लघु का अर्थ कनिष्ठ: 
बहन के फेरों के बाद जब बहन पहली बार दुल्हन बन ससुराल जाती है तब कनिष्ठ महत्वपूर्ण हो जाता है उसे साथ भेजा जाता है।

*धातु-काँसा* लड़की के विवाह के समय दान दिया जाने वाला काँसा का बर्तन खाण्ड कटोरा कहलाता है। (इसके पीछे की परंपरा का अर्थ भिन्न भिन्न स्थान पर भिन्न हो सकता है और कुछ स्थान पर यह परंपरा हो ही ना ऐसा भी हो सकता है) उत्तर भारत में ऐसा बहुतायात देखने में आता है। जिसका अर्थ यह माना जाता है कि आज से हम दोनों परिवार इस कटोरे की तरह एक हुए और हमारे संबंध इतने ही मधुर रहेंगे जितनी इसमें देसी घी और खण्ड हैं 
प्रश्न यही कि काँसा प्रयोग मृत प्रायः हो चुका है ऐसे में इसकी शुद्धता और आवश्यकता परम्पराओं में जीवित है जहाँ काँसा का प्रयोग अनिवार्य माना जाता है।

*2 भाव* 
धातु ... भाव मूल्य (सोने सी महंगी न हो)
लघु .... भाव विचार (समानता का भाव न हो)
भिक्षु .... भाव दान का (दानवीर के दान करने के  भाव न हों) इनके बिना पीछे रहते हैं  

*मैंने इस रचना को वरिष्ठ साहित्यकारों के समक्ष प्रस्तुत किया समीक्षा उद्देश्य से तो समीक्षा में आई टिप्पणी भी प्रेषित हैं।* 

*समीक्षा-1*
यहाँ कवि कासाँ (कनिष्ठ, भिक्षुक पात्र, धातु) की व्यथा बताते हुए कहते हैं शायद रोया होगा (श्र्लेश) क्यों:-कासाँ धातु की बनी मूर्तियों की,अब कोई आदर नहीं, क्योंकि कासाँ सस्ती धातु है , कनिष्ठ यहां तीन अर्थ मान सकते हैं छोटा, अधीनस्थ,या साधारण , तीनों ही अवहेलना के शिकार हैं,और पात्र बर्तन में सबसे हेय दृष्टि से भीक्षा का पात्र माना जाता है।
तीसरी पंक्ति तक यही बता रहे हैं कवि की तीनों का मूल्य नगण्य है,और तीनों अपनी व्यथा किस्से कहे क्योंकि कोई सुनने वाला नही।
फिर कवि वितृष्णा में भर कह उठता है कि इन्हे व्यवहार में कैसे ले कोई क्योंकि इन्हे निकृष्ट मान लिया गया है,
तो फिर विरोधाभास कैसा,जहाँ जरूरी हो वहां कनिष्ठ ही काम आता है,और लौकिक भीक्षा के लिए दाता को भिक्षार्थी का पात्र ही दिखता है और पूजा के लिए मूर्ति की जरूरत होती है।
यानि,"काज पड़े कछु और है ,काज सारे कछु और"।।

बहुत क्लिष्ट भाव है रचना में गूढ़ अर्थ समेटे ,तो लगता है पुरा भावार्थ कर सकूं मेरे वश में नही है ।
क्योंकि कवि वर्तमान में उपस्थित हैं तो स्वयं अपने भाव प्रकट करें तो आगे अर्थ में भ्रातियां न पैदा हो जैसा कि हो रहा है भूतकाल के कवियों के तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर अलग रूप दिया जा रहा है।
इस पर विशेष दृष्टि चाहूंगी ।
काव्य उत्कृष्ट है,
*अलंकारों का सांगोपांग उपयोग ,*
*मानवीकरण, श्र्लेश,अन्योक्ति विरोधाभास,और भी हो शायद ।*
धारा प्रवाह उत्तम, शिल्प पर संदेह करूं ऐसी मेरी विज्ञता नहीं 
कुसुम कोठारी
बाराणसी घोष स्ट्रीट, कोलकाता

*समीक्षा-2*
जी सर , काँसा शब्स के आपने जंगल मे खिली कांस , कांस धातु   के अर्थ में प्रयोग किया है ।।मूरत भी कांस धातु  की है जिसे आपने सजीव माना है । भिक्षु का पात्र भी कांस धातु का है ।। 
   इस प्रकार काँसा शब्द दो अर्थो में प्रयुक्त हुआ एक जंगल मे खिली कांस और दूसरी धातु । 
    काँसा धातु कई धातुओं के मेल से बनी है ।इसमें चाँदी और जस्ते जैसी धातुओं का अंश भी रहता है ।इसलिए  इसे  शुद्ध   और पवित्र मानते है ।काँसे का दान चाँदी के दान के समान है इसलिए बहन की विवाह में दिया जाता है । खांड़ कटोरे की रस्म भी काँसे के पात्र से की जाती है ।

   आपकी रचना में सायास अलंकार नही है ।।काँसे धातु की प्रधानता अवश्य है ।।
🙏🌹
काँसा धातु मृत प्रायः इसलिए है क्योंकि स्टील  कें  पात्रों की तुलना में बहुत महंगी है । दूसरा काँसा केवल राख से ही मांज कर शुद्ध  माना  जाता है और चमक भी उसी से आती है । 
    मेरे मायके में हर मर्द काँसे के पात्रों में ही खाना खाता था और दाल सब्जी काँसे के पात्रों में पलट कर रखी जाती थी । पर आज काँच ,चीनी। मिट्टी ,स्टील।
,प्लास्टिक ,बोन चायना के पात्र प्रयोग किये जाते है ।

सुशीला जोशी मुज्जफरनगर (यू.के.)

17 comments:

  1. बहुत सुन्दर सर जी

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  2. बहुत ही बेहतरीन रचना

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  3. अनुपम रचना आ.सर जी🙏🏻

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  4. बहुत अच्छी जानकारी आदरणीय क्या कहें बहुत जोरदार

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  5. बहुत शानदार विचार,शानदार अभिव्यक्ति साधुवाद

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  6. बहुत ही खूबसूरत कुण्डलियाँ ...कथन ,शिल्प,शब्द चयन सब लाजवाब 👌👌👌 अंलकारों का खूबसूरत प्रयोग रचना में चार चाँद लगा रहा है।सबसे उत्तम स्पस्टीकरण...इतनी गूढ़ रचना को सरलता से समझाया आपने...आभार और ढेर सारी शुभकामनाएं 💐💐💐

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  7. बहुत ही सुन्दर अलंकारिक प्रस्तुति
    बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर!
    नववर्ष मंगलमय हो आपका!

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