गजल
संजय कौशिक 'विज्ञात'
बह्र~ 2122 2122 212
दिल नहीं लगता कहीं पर आज कल।
वक़्त का बदला है तेवर आजकल।
वो वकालत काम किसके आ रही
मारती जो सच यहाँ पर आज कल।।
फूंकती है लू बदन को जेठ की
खो गया बादल कहीं पर आज कल।।
बाग में तितली नहीं अब एक भी
और बिखरे हैं पड़े पर आज कल।।
काम धंधा भी जहाँ पर बंद है
देख कोरोना सभी घर आज कल।।
और फिर फूलों से बनती है कहाँ
बोलते हैं शूल अक्सर आज कल
बिक रहे अखबार देखो हैं सभी
झूठ की बुनियाद जिस पर आज कल।।
वो महल से झांकता नीचे रहा
जो खड़ा ऊँचे पे जाकर आज कल।।
शख्स वो जो ऊंट पे बैठे कभी
भौंकते कुत्ते हैं उस पर आज कल
एक बूढ़ी माँ तड़पती चल बसे
मिल सके बेटा कहाँ पर आज कल।।
वो नजर भी देख कौशिक झुक गई
जो फरेबों से रही तर आज कल।।
संजय कौशिक 'विज्ञात'